भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उश्शाके तेरे सब थे पर ज़ार था सो मैं था / मीर 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उश्शाके तेरे सब थे पर ज़ार था सो मैं था
जग के ख़राबा अंदर इक ख़्वार था सो मैं था

दाख़िल शहीदों में तो लोहू लगा के सब थे
शमशीर-ए-नाज़ से पुर-अफ़गार था सो मैं था

सुंबुल के पेच में दिल मेरे न था किसी का
नर्गिस का एक तेरी बीमार था सो मैं था

तुझ घर में अर्ज़ ए मतलब किस की न था ज़बाँ पर
दर पर जो तेरे नक़्श-ए-दीवार था सो मैं था

दाग़-ए-मोहब्बत ऐ गुल जब था तेरा न जग में
दाग़ों से जिस का सीना गुल-ज़ार था सो मैं था

गो इश्क़ के तुम्हारे उश्शाक़ अब मुक़िर हैं
अव्वल ज़बाँ पे जिस की इक़रार था सो मैं था

तुझ इश्क़ में नसीहत सब यार मानते थे
नासेह के पर सुख़न से बेज़ार था सो मैं था

इस मै-कदे में गाहे ऐ ‘सोज’ हम न बहके
सब मस्त ओ बे-ख़बर हुश्यार था सो मैं था