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उषा / शमशेर बहादुर सिंह

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प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और...
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, "टूटी हुई बिखरी हुई" से)