उसकी कविता / रमेश तैलंग
उसे
हर रोज
मैं अपने साथ-साथ
कविता रचते हुए पाता हूं।
जब मैं सोच रहा होता हूं
कि कविता का विषय क्या हो
वह सोच रही होती है-
आज घर में क्या पकेगा।
जब मैं चुन रहा होता हूं
कविता की पंक्तियों में
जड़ने के लिए
उपयुक्त शब्द,
वह चुग रही होती है
कनियों से भरी थाली में से
साबुत चावल का एक-एक दाना।
जब मैं दे रहा होता हूं घुमाव
कविता में
जन्म लेती लय को,
वह घुमा रही होती है
चकले पर पड़ी
आटे की लोई
रोटी की शक्ल देने के लिए।
जब मैं काट रहा होता हूं
लिख-लिखकर
अनचाही पंक्तियां,
वह फेंक रही होती है
उबले आलुओं से
उतारे हुए छिलके...।
जब मैं ले रहा होता हूं
राहतभरी सांस
कविता रचने के बाद,
वह पोंछ रही होती है
पल्लू के छोर से
माथे पर आया पसीना।
और फिर
हम दोनों
मुक्ति के उस एक क्षण को
अपनी-अपनी मुट्ठियों में कैद करने की
नाकाम कोशिश करने लगते हैं।