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उसकी मर्ज़ी से / हूबनाथ पांडेय

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उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता
क्योंकि उसकी हुक़ूमत पत्तों पर ही चलती है

उसकी मर्ज़ी से जनमते हैं लोग
मरते हैं या मारे जाते हैं
उसकी मर्जी से बनते हैं बम
और फूटते हैं इनसान गुब्बारों की तरह

उसकी मर्ज़ी से निकलता है बच्चा
साठ फुट गहरे गड्ढे से
और साठ सालों में मरते हैं साठ करोड़ बच्चे
भूख और कुपोषण से

उसकी मर्ज़ी से बंटती है खैरातें
बनती हैं शानदार इमारतें उसके लिए
उसने बख्शी हैं जिसे बे पनाह दौलत
वह उसी को दान करता है उसकी मर्ज़ी से

उसकी मर्ज़ी से
मौत के मुंह से बच जाते हैं गुनहगार
और मारे जाते हैं बेगुनाह

उसकी मर्ज़ी से मासूम बच्चे
हवस का शिकार होते हैं
भीख मांगते हैं
ड्रग्स लेते हैं
और मर जाते हैं जवान होने से पहले

उसकी मर्ज़ी से अस्सी के बाद भी
नौजवानों को मात करते हैं धनपशु

उसकी मर्ज़ी से वेश्याएं बेचती हैं जिस्म
पतिव्रताएँ सहती हैं लम्पट पति को
उसकी मर्ज़ी से उसीकी इमारत शहीद होती है
होते हैं अनगिन मासूम हलाक़

उसकी मर्ज़ी चलती है ज़मीन, आसमान, सितारों पर
नहीं चलती तो सिर्फ़ गुनहगारों पर
जो सदियों से
इनसान और इनसानियत को रौंद रहे हैं
रौंदता है सूअर जैसे पवित्र वस्तुओं को
उसकी बनाई दुनिया में जीना है
तो उसकी शान में सिर झुकाना होगा
नहीं करना होगा कोई सवाल
सवाल उसे नहीं भाते
चलती है सिर्फ उसकी मर्ज़ी

उसकी मर्ज़ी के खिलाफ
एक पत्ता भी नहीं हिल सकता
भले पूरा पेड़ उखड़ जाय