भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसके होंठों पर रही जो, वो हँसी अच्छी लगी / नित्यानन्द तुषार
Kavita Kosh से
उसके होंठों पर रही जो, वो हँसी अच्छी लगी
उससे जब नज़रें मिलीं थीं वो घड़ी अच्छी लगी
उसने जब हँसते हुए मुझसे कहा` तुम हो मेरे `
दिन गुलाबी हो गए ,ये ज़िन्दगी अच्छी लगी
पूछते हैं लोग मुझसे , उसमें ऐसा क्या है ख़ास
सच बताऊँ मुझको उसकी सादगी अच्छी लगी
कँपकँपाती उँगलियों से ख़त लिखा उसने `तुषार`
जैसी भी थी वो लिखावट वो बड़ी अच्छी लगी