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उस के सपने / ओम पुरोहित ‘कागद’

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वह
हर रोज
काम से लौटने के बाद
सपने देखता हैं।

वह देखता है;
उसका टीसता बदन
मखमल के कालीन पर
पसरा हुआ है
और
कई कोमल हाथ
मालिश कर रहे हैं
सामने पड़ा टी.वी.
चौबीसों घंटे
उसकी मनचाही
फ़िल्में दिखा रहा है।
उसका मालिक
डाकघर का डाकिया है,
और
सुबह शाम
डाक की जगह
रोटियां बांटता है।

देश के चौबीस घराने
अशोक चक्र में खड़े हैं
और उसको वह
अपनी अंगुलियों पर चलाता है।

वह सपने में जब भी
कुछ आगे बढ़ता है
तुम्हारी कसम
बहुत बड़बड़ाता है;
मैं अपना
सब कुछ लुटा सकता हूं
परन्तु
अपना अंगूठा
नहीं कटवा सकता
मां कसम
मैं इसी की खाता हूं।

अंधेरे बंद कमरे में
जब मतपेटियां
उसका मत मांगने
उसके करीब आती हैं
वह चीख पड़ता है- नहीं!
मैं, अपना मत
खुद डालूंगा
यदि आगे बढीं
तो भून डालूंगा।

मैं देखता हूं
पूरी रात
उसकी मुठ्ठी तनी रहती है
राम जाने
उसकी किस के साथ ठनी रहती है।

परन्तु
दूसरे दिन
जब वह काम पर लौटता है
गुम-सुम
अकेला
बहुत अकेला
जबड़े भींच कर बैठता है
और मुझे न जाने क्यों
सत्ता के गलियारे में
उल्लू बोलता सुनाई पड़ता है।