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उस को ये ज़िद है कि रह जाए बदन सर न रहे / मज़हर इमाम
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उस को ये ज़िद है कि रह जाए बदन सर न रहे
घमती जाए ज़मी और कोई मेहवर न रहे
उस ने हिम्मत जो बढाई भी तो रक्खा ये लिहाज़
कोई बुज़दिल न बने कोई दिलावर न रहे
उस ने इस तरह उतारी मिरे ग़म की तस्वीर
रंग महफ़ूज़ तो रह जाएँ प मंज़र न रहे
उस ने किस नाज़ से बख़्शी है मुझे जा-ए-पनाह
यूँ कि दीवार सलामत हो मगर घर न रहे
अब ये आँधी भी चली जब तो सलीक़े से चली
यूँ कि राह जाए शजर शख़-ए-समर-वर न रहे
अब ये साज़िश है कि लिक्खे न कोई क़िस्सा-ए-दिल
लफ़्ज़ रह जाएँ मगर कोई सुख़न-वर न रहे