ऊलुदाग़ पहाड़ के बारे में / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल
सात साल से ऊलुदाग़ और मैं
आँखों-आँखों में एक=दूसरे को निहारते रहे हैं
न इंच-भर वह टस से मस हुआ
न ही मैं,
फिर भी हम एक-दूसरे को बख़ूबी जानते हैं ।
सभी जीती-जागती चीज़ों की तरह
उसे मालूम है कि कैसे हँसा जाता है
और कैसे आगबबूला हुआ जाता है ।
कभी-कभी
जाड़े के दिनों, ख़ासकर रात के वक़्त
जब दक्खिनी हवा बहती है,
अपने बर्फ़ीले जंगलों, पठारों
और जमी हुई झीलों के साथ
नींद में वह करवट लेता है
और वह बूढ़ा आदमी,
जो चढ़ाईदार रास्ते पर,
बहुत ऊँचाई पर रहता है
अपनी लम्बी दाढ़ी फ़रफ़राता,
चिल्लाता हुआ
बग़लगीर होता है —
नीचे घाटी में बहती हवा पर सवार हो जाता है ...
फिर कभी-कभार,
ख़ासकर मई के महीने में, सूरज उगने के वक़्त
एक बिल्कुल नई दुनिया - जैसा, वह जागता है
विशाल, नीला, विपुल
मुक्त और प्रसन्न ।
फिर वे दिन
जब वह प्लास्टिक की बोतलों पर छपी
अपनी तस्वीर जैसा नज़र आता है
और तब मैं समझ जाता हूँ कि इसके होटल में
मैं नहीं देख पाऊँगा ’स्की’ करती रमणियों को
कोन्याक की चुस्कियाँ लेते;
स्की करते नौजवानों के साथ खिलवाड़ करते ।
और फिर वह दिन आता है
जब उसकी बोतली भृकुटियों वाली पहाड़ी आबादी में से
एक शख़्स
पाक जायदाद के संगे- मक़्तल पर अपने पड़ोसी का ख़ून
बहाने के बाद
पीले गाढ़े के पाज़ामे में
हमारे बीच मेहमान बनकर आता है —
’सेल ब्लॉक —71’ में
पन्द्रह साल की मीआद पूरी करने के लिए ।
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अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल