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ऊ सब हमरा घरे, दिन खानी अइले सँ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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ऊ सब हमरा घरे, दिने खानी अइले सँ
कहले सँ दीन होके, विनती निहोरा कके-
एक ओरी केनहू, कोना में, कोन्हर में,
केहूँ गईं पड़ल-पड़ल, दिन काट लेहेब सँ।
देव-सेव करे मेभें, करेब सँ सहायता
पूजा के बाद जवन, बाँची परसाद तवन
माथे चढ़ाएब सँ, ऊहे बस खायेब सँ।
एही घड़ी कह-सुन के
दीन-हीन मलिन-छीन
निर्धन दरिद्री सब
एक ओरी कोना में
डेरा डटवले सँ।
सहमत, लजात,
सकुचात मने-मने सब
जेहीं गईं तेहीं गईं
उहाँ रहे लगले सँ।
रात भइल, गजब भइल,
दिन के दरिद्री सब
कइसे दू प्रबल भइल।
देवता का मंदिर में
ढुक-ढुक के सब-के सब
चढ़ल प्रसाद के
गंदे हाथे ले ले के
ढीठे खाए लगले सँ।