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एकतीस (मुक्तक) / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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(१)
इधर कुआँ उधर खाई कहाँ जाऊँगा
इधर साहब उधर बीबी कहाँ जाऊँ
इसी के बीच उनपढ़ फँस गया है
दुनिया है हरजाई कहाँ जाऊँ

(२)
तुमने मेरे गीत को बकबास समझा
तुम धरा को एक बृहद आकाश समझा
हाई रोना है अनपढ़ का, समंदर आँख में उमड़ा
कहा सबके लिए मैंने, मगर तुम खास समझा
(३)
झाँकते हो जिस तरह तुम दूसरे के घर की खिड़की में
उस तरह ही झाँकता कोई तुम्हारे घर की खिड़की में
फँस गया अनपढ़ इन्हीं बदनाम गलियों में
काश! उसके घर की खिड़की झाँकता तुम मन की खिड़की में
(४)
तुम्हारी साँस के सरगम तो बजते रह गए
बेसुरी आवाज बेसुरे साज सजते रह गए
अनपढ़ इसी सुर-ताल पर नाँचा बहुत
आखिरी तक अपनी गलती में ही पलते रह गए
(५)
दूसरे की बात मत कर झाँक अपने आप अंदर को सलीके से
जिन्दगी जीना अगर चाहो तो जी जाओ तरीके से
अनपढ़ के सब सपने कुँवारे रह गए तो क्या करें
जिन्दगी जीने नहीं आया कभी जम के करीने से