भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकवस्त्रा / सारिका उबाले / सुनीता डागा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं रजस्वला
बैठी हूँ देह को समेटकर
घर के पिछवाड़े कोठरी में
युगों से प्रतीक्षारत ।

मैं अन्नपूर्णा
ऊपर से परोसे पानी के गिलास को
औंधा कर रखा है मैंने
दूर से ही धकेली खाने की थाली
अच्छे से चबा-चबाकर ख़त्म कर
माँजकर रख दी है मैंने
सूखी !

बिस्तर को भी रखा है मैंने
सावधानी से लपेटकर
आते-जाते कोई छूकर भ्रष्ट न हो…

मैं रजस्वला
मैं ध्यान रखती हूँ
मेरी छाँव न पड़े
पापड़-बड़ी-अचार-सेवइयों पर
नहीं जाती हूँ मैं किसी पूजा-पाठ में
छुआछूत कि कहीं अपवित्तर न हो जाए
सब कुछ
मैं पक्का जानती हूँ कि
पिछले जनम के कुकर्मों का ही फल है
यह स्त्री का जनम
मेरे हाथ के स्पर्श से
सूख न जाएँ हरे पेड़
अत: बचती हूँ मैं
आँगन में घूमने से
आज घर में है कोई अनुष्ठान
अतः तीसरे दिन सिर पर
पानी उड़ेला है मैंने ।

मैं रजस्वला
मेरे पेट और जाँघों में है
भयावह ऐंठन
पिण्डलियों पर उभर आई है
पीड़ाओं की हरी-नीली शिराएँ
पृथ्वी के खिलने से
अँकुर के उगने की उथल-पुथल
और कमर में जानलेवा दर्द ।

सिर को ढँककर
हाथ-पैरों को मोड़े
पड़ी हूँ मैं एक तरफ़
शान्त
जैसे भू-माता के पेट में
ग़ायब हो जाए सीता !

मैं रजस्वला
गाती हूँ सृजन का गीत ।

भरे दरबार में
आँचल को खींचकर
अन्तःपुर से बाहर लाने वाले
ये हाथ किसके हैं ?

मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा