एकाएक / वैशाली थापा
मृत्यु के ऐन मौके पर भी
क्या याद रहेगा वो अदना सा लम्हां
मेरे एकाकीपन में
तुम्हारे पुकारे जाने की प्रतीक्षा का।
भूख के एक दीर्घ अंतराल के बाद
जब प्राप्त होगा सुख दाल-भाँत का
तब भी क्या कोंधेगा भीतर वह सूक्ष्म क्षण
जब मैं थी उजाड़
और तुम अबोध।
बेआवाज़ जब चटकेगा अहंकार
सफलता संतूर की तरह सरसराएगी
मीठे शब्द और भ्रष्ट मुस्कान से ठगी जाउंगी एकाएक
क्या तब भी उभरेगा उस याद का फोड़ा
जब मुझे अनुभूत हुआ
मैं शायद तुम्हारी किसी उलझी हुई नब्ज़ की सुलझन भर हूँ।
जब दाँत का डाॅक्टर खींच रहा होगा अक्कल दाढ़
अंगुली के पोरो से कोई गुदगुदा रहा होगा आत्मा का उदर
अज्ञात आहट पाकर झुरझुरा जाएगी जब काया सम्पूर्ण
तब भी क्या घण्टे की सुई की तरह
तुम्हारे होने न होने के भ्रम का खटका रेंगता रहेगा?
नहीं!
इन या इन जैसे प्रबल क्षणों में,
नहीं ध्वनित होगा वह गजर
जब मुझे हुआ महसूस
वह व्यक्ति नहीं हो तुम
होता है जिनका जन्म
मुझ जैसी लड़की को प्रेम करने के लिए।
मैं स्वयं को समझाती हूँ निरन्तर
दुःख की इतनी संकरी घड़ी
जो कि काल्पनिक भी हो सकती है
जीवन के सच्चे आश्चर्यो पर भारी नहीं पड़ सकती।
मगर सच्चे दुःख का एक सेकण्ड भी
जीवन के झूठे आश्चर्यो पर भारी पड़ता रहा है।