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एकान्त / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
एकान्त मेरा पल्लू पकड़ कर
इस कमरे में जम गया है
अब यहीं पर बैठे-बैठे ही
मुझे देखना होगा
कोहरे से लदी-फदी उदास सर्द शामों का ऊँचा शामियाना
दिन की फड़कती नब्ज़
को अपनी पलकों से थामना होगा
आलथी-पालथी बैठे हुए
कल्पनाओं के तीरों को
यहाँ-वहाँ छोड़ना होगा
मछली की तरह खुली आँखों
से रात के सारे पहरों को पार करना होगा
तारों की आपसी टकराहटों को
उसी चुप्पी की गरिमा से महसूसना होगा
अपने भीतर की अरबों-खरबों
कोशिकाओं के बँटवारे को महसूस करती हूँ
जैसे
चुपचाप अकेले-एकान्त में