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एक-एक लकड़ी पलक मलने लगी है / सूरज राय 'सूरज'

एक-एक लकड़ी पलक मलने लगी है।
अब तो आ जाओ चिता जलने लगी है॥

सन्न है घर का सुकूँ, चुप-चुप हैं रिश्ते
एक बच्ची कोख़ में पलने लगी है॥

दर्द की शम्मा की किसने लौ बढ़ा दी
पुतलियों की मोम अब गलने लगी है॥

फ़ैसला हो जाएगा क़ातिल के हक़ में
अब अदालत में ज़िरह टलने लगी है॥

सब हथेली से दिये दिल के छुपा लो
तेज़ मज़हब की हवा चलने लगी है॥

ऐ अज़ल आ सौंप दूँ ये जिस्म तुझको
अब अमानत ये तेरी खलने लगी है॥

क़ब्र में भी पैर फैलाना है मुश्किल
ये किसी की बद्दुआ फलने लगी है॥

दे दिया परछांई को "सूरज" ने रिश्वत
वो मुसलसल जिस्म को छलने लगी है॥