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एक-न-एक दिन / तरुण

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(एक कवि का विदा-गीत)

एक-न-एक दिन-
जिस दिन मैं न रहूँगा-उसके दूसरे दिन
तुम सवेरे उठकर-पलक खुलते ही
कलमलाते दीए-सी, कबूतरी-सी भड़भड़ाई
चारों ओर, अपनी सहज ढीली गर्दन घुमा
इतने बडे संसार में, नीरव-नीरव,
रीती-रीती-सी
देख रही होगी!

-कैसा लगेगा!

एक-न-एक दिन
जिस दिन तुम न रहोगी-उसके दूसरे दिन
सवेरे उठकर
गर्दन घुमाकर नीरव-नीरव
चारों ओर मैं देख रहा होऊँगा-
लम्बे-चौड़े संसार में-
न जाने, मुझे कैसा लगेगा!

मेरा रोम-रोम चुप!
जीवन की बर्फानी हवाओं में, आँधी-पानी में-
पाँखें सिमटा चुप हो बैठ जायगा!
और, जिस दिन हम दोनों ही नहीं रहेंगे-
अपना-पराया शायद कोई-न-कोई कह उठेगा-
-‘दोनों ही गये।’

कोई नन्ही नेहिल चिड़िया तब
आँगन पार करती-सी
फरफरा कर उड़ रही होगी
ओस से नम कपूरी धूप में!

1990