भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक अजीब-सा खालीपन / राहुल कुमार 'देवव्रत'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिलन बिछुड़न तड़प तन्द्रा
और जाने क्या-क्या था
वक्त बदले तो ये चीज़ें भी नामुरादों में शुमार हुईं

कैसे कहूँ...
ये सिर्फ़ साथ बिताए लम्हों का मोल चुकाने की बातें नहीं थी
न करार पर खरे उतरने की ज़िद्द

तुम कितने ग़लत थे तुम जानो
मेरी मैं
ये बेतरतीब बिख़रे मसनूई हालात और हम
साथ संगत मुनासिब भी हुए अब अगर
फायदा क्या?
कितने भी रसमिश्रण घोल लो
व्यर्थ है
एक हर्फ़ न पहुंचेंगे

चलना राह पर आकाश तकते
हश्र क्या?

ये आशाओं के महल दुमहले
डुबोकर रंग में
फिराना कूचियाँ
सारा प्रयास
गढ्ढों को भरने का मतिभ्रम है
ये भरते नहीं
...और बड़े गहरे की नींव डालते हैं