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एक अधूरी कविता / असद ज़ैदी

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मैं तुम्हारे यहाँ बैठा था
और मुझे लगा मैं किसी चित्र के अन्दर बैठा हूँ
और यह चिड़िया जो तार पर बैठी है अभी उड़ेगी नहीं
और जल्दी ही कोई आकर ख़बर नहीं लेगा हमारी
और यह योजना यूँ ही बनी रहेगी
हम नहीं होंगे आख़िरकार विफल
हम नहीं होंगे विकल
धीरज हमें रास आ जाएगा
हम अपने विनाश को कहेंगे ह्रास
तुम्हारी राय होगी वस्तुओं को रूखा और सूखा होना चाहिए
तुम कहोगी स्वप्नों को कठोर इच्छाओं को
पानी जैसा फीका होना चाहिए
और इसी रूप में बन जाना चाहिए हमें प्रेम का ग्रास

मैं उस जगह से उठ गया जहाँ कभी बैठा था
कुर्सियाँ हटा दी गईं पुताई करा दी गई
लोग बदल दिए गए फ़र्श का अब उतना बुरा हाल नहीं
पर ग़लती से पुराना धुराना पंखा वहाँ लटका रह गया है
धीमे स्वर में घरघराता हुआ
जो चित्र में नहीं आया वह आज भी है वैसा ही बना हुआ

मैं चाहता था कि जब हम जीवन पर बात करें
तो कविता को भूल जाएँ