भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक अबूझ बन्दिश / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गांव भी तब उसे बमुश्किल शुमार किया जाता था
विस्थापितों की एक उभरती बस्ती थी जिसमें कुछ
घरनुमा सी हो न सकने वाली झुपड़ियाँ थीं जिन पर
नजीक के मुहार से यत्नपूर्वक काटकर जुटाई गई
लेंडी की हरी कच्च टहनियाँ थीं जो किसी जुगत बिछी थीं

उस पर देसी कबेलू से बनाई गई खपरैल छतों में
छूट गये बहुत से सुराख थे जिनके खो जाने पर
हम अक्सर उदास हो उठते थे
सुराखों से टपक पड़ती धूप में हमारे
अजब-गजब खिलौने थे सर्वाधिक आधुनिक

इंद्रधनुष की आधी अधूरी कलाकृतियाँ
जिन्हें हमने सुराखों से उतरते देखा था
कांच के फालतू टुकड़ों को धूप की सीध में किये
कई रहस्य हमने खेल-कूद में जान लिये थे

धूल जो हमारे सिरों पर उछलकूद करती थी
सूरज को ढँकने का हौसला रखती है यह हमें
आसमान में अटती गंदगी से पता चला
हवाओं के करतब और रेखाओं का गणितीय अर्थ
इन्हीं खेलों ने हमें समझाया और
सृष्टि के बारे में अनेक सूचनाओं से नवाजा

खपरैल की जर्जर छत इस तरह सुसज्जित शिक्षा केन्द्रों
के मुकाबले हमारी प्रारंभिक पाठशाला बनी
उन दिनों हमें बारिश का बेतरह इंतजार रहता
कई दिलचस्प खेल उसकी वजह से रूके रहते
यह बात घर में सख्त नापसंद की जाती
परिवार के लिये यह सबसे कठिन मौसम होता

इस हद तक कि पिता भगवान को गरियाते
मां जो बेहद धार्मिक विचारों की थी
भगवान की मर्जी मान बहुत पहले
प्लास्टिक की लंबी-चैड़ी पन्नियाँ अबेरना शुरू कर देती
इस दौरान फटे-पुराने त्याज्य बोरों के दिन फिर आते
पिता बुड़बुड़ाते हुये दुकान के कोने में फेंक दिये
फटे पाल को थिगड़े लगा सी लिया करते

पूरा कुनबा किसी युद्ध की तैयारी में जैसे पिल पड़ता
बरामदे में गायब हो चुकी पार ऊँची होने लगती
नजीक में ढँकी-मुँदी नालियों को गहराने की होड़ में
हम सब भाई बहन टूट पड़ते
घर पर मँडराते आतंक और भय के बावजूद
बादलों के जमावड़ों में हमारी दिलचस्पी कम न होती
उनमें हमारे खिलौने छुपे थे जो
कई सूरतें लिये आसमान के मैदान में नमूदार होते
उनकी अठखेलियों से निकलते हमारे
नायक-खलनायक, गेंद-गुब्बारे और पुष्पक विमान

कोई शानदार लय और हैरतअंगेज गति जो
एक अबूझ बंदिश लिये हमारे भीतर उतरती
कहीं सुने गये मल्हार या बादलराग जैसा कुछ
जो हमारे लिये तब समझना कठिन होता
मंद-तेज गड़गड़ाहट, तड़क और नक्कारों से प्रभाव में
आरोह-अवरोह, सम-विषय या कुछ ऐसा जिसे
संगीत के लोग बेहतर समझ सकते थे
हमने थोड़ा कुछ बारिश से पकड़ना शुरू कर दिया था

कुछ खास ध्वनियों की हमें तलाश रहती जिन्हें
वक्त जरूरत पड़ने पर हम कंठ से निकाल सकते
या कि टीन कनस्तर, थालियों और लोहे की मेजों पर
पकड़ आई तालों पर मटक या नाचकर
उन नकचढ़ों को चिढ़ा सकते
हवा ऐसे मौसम में हमारी दोस्त हो जाती
दादी माँ की कहानियों में आए वातावरण को
पहचानने में वह हमारी भरपूर सहायता करती
खासकर कहानियों में जब कोई दुष्ट राक्षस आता
दादी माँ डरावनी ध्वनियों के सहारे उसके प्रवेष की
सूचना देकर हमारे सीख रहे ध्वनिपाठ को पुष्ट करती
ऐसा बहुत कुछ पार्ष्‍व संगीत बारिश के मौसम से
हमने अपनी पाठशाला में सीख लिया था

पास-पड़ोस की वस्तुओं से उठती ध्वनियों का बोध
बर्तनों में टप-टप या कि टप-टपा-टप बूंदों का नाद
खपरैल पर नाचती-इठलाती कोई देसी बंदिश
पुरा-पड़ोस की छतों पर ओलों का तांडव
बहुत कुछ ऐसे संगीत रूप हमें मौसम ने पढ़ाये
ध्वनियाँ जो गहरे हमारे अवचेतन में पैठ गई थीं
उनका ऊट-पटांग प्रयोग हमें सुख देता
मसलन अंट-शंट ध्वनियाँ निकाल खिझाना
टीन की छतों पर कंकड़ फेंकना
कुँओं में पत्थर या बाल्टी की डुब्ब सुनना

कब और कैसे के नासमझ प्रयोगों के चलते
बाजदफा हम खूब पीटे जाते

पिता कोसते खुलेआम और माँ फटकारती
इन सबके बीच बारिश हर साल दे जाती
कुछ और ताल ज्ञान, नयी लय और कुछ संगीत पाठ
समझ में सब आया ऐसा दावा फिजूल
जितना कुछ सुना याकि सुनता हूँ
अत्याधुनिक, पारंपरिक कि प्रयोगधर्मी

टटोलकर मेल करता हूँ पीछे से
बहुत कुछ वैसा और ढेर कुछ बाहर
मैं उपलब्ध से बाहर मैं दौड़ना चाहता हूँ
मैं नौ महीने सुने हुए को गुनता हूँ
मैं गुने हुए के सच होने का इंतजार करता हूँ