एक दिन 
की रात
मद्धिम होते-होते लैंप 
आख़िरकार 
लिखे जा रहे पत्र को 
बुझा देता है 
हठात बिदा के- सस्नेह - में
अंतिम उजास उसकी 
जहॉं से पलट कर देखता हूँ 
तब दिखती है 
पत्रलेख की वर्तनियों में 
वह बलती हुई वर्तिका 
अपनी चिमनी के कांचघर में निष्कंप नर्तन करती उसकी शिखा 
उस दिन की रात, जिसने 
घर का काम-काज जल्दी-जल्दी समेटा था,जलकर खड़ीं होते ही 
जब नगर के लैंडस्केप पर हस्बमामूल पुत गई थी 
लोडशेडिंग की स्याही 
रात को अन्धराती समय से पहले 
और 
घर भर में विभक्त अपने उजेले को 
समेत कर 
वह लैंप 
जलता रहा था 
देर तक, आत्मस्थ 
वस्तुओं को अपना जीवन जीने के लिए 
उजेले की जरुरत नहीं रह गई थी 
कोई क्रियाएँ नहीं थीं उजाला चाह्तीं
फोटोसिन्थेसिस के लिए उजाला चाहते पत्तों की तरह 
बच्चों की तरह 
सो गई थीं सारी चीज़ें
तुम्हारे माँ तलुओं के पैताने
और सिरहाने 
जलता रहा वह लैंप 
देर तक, आत्मस्थ
धीरे-धीरे उसका उजाला 
एक सरोवर में बदल गया 
जिसमें इच्छाएँ 
कुमुद्नियों की तरह मुकुलित होती है 
निस्पृह इच्छाएँ 
वे सभी 
कविताओं का रूप ले लेना चाहती हैं 
उमग-उमग 
पर एक पत्र की पंक्तियाँ ही बनना तय करती हैं
एक संबोधन उपजता है
शुरू करता 
प्राण-प्रवाह की एक प्रणाली
जो पुरानी हो कर भी तुम्हारी अपनी है 
और मेरा तो वह नाम ही है 
बड़भागी हूँ 
कि सहभागी हूँ 
तुम्हारे प्राणप्रभ कविताकामी रतजगों में 
उसको 
उसी पत्र को 
निस्स्नेह धीरे-धीरे बुझाता 
लैंप 
विदा का-सस्नेह -
हठात बलात लिखवा 
बुझा देता है 
वहीं का वहीँ
और 
पत्र के लिफाफाकार मोड़े गये कागज़ पर 
अशेष शब्दों से भरी कलम 
रख 
तुम सो जाती हो