एक आदमी दावत से लौटकर क्या सोचता है / शिवप्रसाद जोशी
स्थिर हो जाऊँ
अपनी निर्विकारता में लेट जाऊँ जाकर
बहुत हुआ नाच
मज़ाक
दावतें
बस करो भाई
आखिर मुझे ख़ुश दिखते हुए
कितने घंटे हो गए
पता है आपको
कितनी देर से हँसते हुए खिंचवा ली मैंने फोटुएँ...
जब खा चुके लोग
नाच अपनी विद्रूपता में हो गया पूरा
और शोर
और लालच
और झपट
उठो इस नकलीपन से
हँसी की ओट से निकलो बाहर
बुलाता है सन्नाटा
अकेलापन कहता है कहाँ थे इतनी देर
चश्मा उतारो मुँह धो लो कमीज़ बदलो
और भूलो
कि वह तुम थे
इसे क्षमा कर दें आप लोग कि
आपने ग़लत आदमी के साथ पी शराब
खाया खाना
की बात
नाच में वह कोई दूसरा होगा
वह यहाँ है
झेंपता हुआ इतना सोचते हुए किसी के बारे में
देता हुआ सलाहें ख़ामाख़्वाह चिट्ठियों में
खीझता हुआ कविता में
मेहरबानी होगी इतना ही समझ लें आप लोग
उलझन में लौटना चाहता रहा
जहाँ कोई शब्द नहीं होते
बस एक उद्दाम लालसा
एक प्यास के पास लेटने की
अवसाद की एक खींच
एक आलिंगन का फँसाव
वासना को खुरचता हुआ देर तक देर तक
और एक ही बात बार-बार
बार-बार
इस किस्से से निकलना है
और लौटना है एक महान ऊब में
वह सोचता है
हाँ यहीं ठीक हूँ मैं अपने कमरे में
मीर को पढ़ता हुआ
अमीर ख़ान को सुनता हुआ
अपनी बेवकूफ़ियों पर कसमसाता हुआ
रोने की हूक को सुनता हुआ ध्यान से
जैसे आती हो कहीं और से।