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एक आवाज़ / अशोक तिवारी

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रात के सपने में
सुनाई देती है
एक लड़की की आवाज़
फ़ोन पर
इन दिनों अक्सर
'कौन है' के जवाब में
'मैं हूँ' सुनते ही
खँगालने लगता हूँ
भूली बिसरी आवाज़ों को
विस्मृत चेहरों पर
फिराने लगता हूँ उँगलियाँ

खुरदरे स्पर्शों से
घायल होकर
लौटता हूँ वापस जब
झंकृत करती है मेरी संवेदनाओं को
उसकी आवाज़

मुझे लगता है
वो आवाज़ आ रही है
मीलों गहरी सुरंग से
आवाज़ में छटपटाहट
मुझे वैसी ही लगती है
जैसी सालों पहले
उस लड़की के क्रंदन में थी
पाई गयी थी जो 'अधजली'
गुसलखाने में
उस लड़की के रुदन में थी
धकेल दिया गया था जिसे
गहरे अंधेरे कुंए में
अघोषित सजा पाने के लिए
ज़िंदगीभर के लिए
ऐसे आदमी के साथ शादी करके
जो उसे कतई पसंद न था

बहुत दूर से आती हुई आवाज़
उस गुहार में कब हो जाती है तब्दील
पता ही नहीं चलता,
जो बन जाती है बहुधा
मेरी ही आवाज़ की प्रतिध्वनि

ये आवाज़
कभी बंद कमरे में
आग से जलकर मरी औरत की
आँखों से टपकने वाली पीड़ा
से मेल खाती है
तो कभी रेल की पटरियों पर
पाई गई अंग-भंग औरत के
खून के कतरों को सुखाती है
करते हुए अपने दस्तख़त
चीख़-चीखकर

उस औरत की चीख़
जो सुनने से ज़्यादा
की जा सकती है महसूस
अपने अंदर,
मेल खाती है
हमारे अंदर की
ऐसी ही अनगिनत औरतों से

रात के सपने में
सुनाई देने वाली आवाज़
किसकी है !
करता हूँ क्या
मैं ख़ुद ही डायल
सुनने के लिए बार-बार!!
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रचनाकाल : 15 जून, 2010