भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक उदासी परछाईं की तरह/ विनय प्रजापति 'नज़र'
Kavita Kosh से
लेखन वर्ष: २००३
शाम हुई
एक उदासी परछाईं की तरह
जिस्म के पीछे-पीछे चलने लगी
और एक बूँद
कोरे किनारों को तर कर गयी
ज़हन जैसे लिहाफ़ है फटा हुआ
और किसी ने उस पर
ख़्यालों के पैबंद सीं दिये हैं
इसको न ओढूँ तो
सर्द रातें बेकस कर जायें
रात तो किसी तरह कट ही गयी
ज्यों शगाफ़ ने करवट ली
सहर ने उफ़क़ के किनारे तेज़ कर दिये
फिर से गूँगे दिन ने
तन्हाई दोहरायी बुतों की भीड़ में
ख़ैर किसी तरह यह दिन भी बह गया…