भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक उदास शाम / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितनी उदास एक शाम हो सकती है
उतनी ही उदास शाम है यह।
अवसाद बेहद कठोर हो
जम गया है
आज इस सर्द शाम के
ईद गिर्द।
कहीं से उसके बह सकने के आसार
नज़र नहीं आते।
तो क्या ये पूरी दुनिया
यों ही जमी रहेगी
आज की तारीख की
इस शाम।
इस वीरान शाम
उदासी की धुन
लगभग उसी तरह
महसूस की जा सकती है
जितनी कि
एक चिथड़ा सुख के शब्दों के बीच से बहती
खामोश उदासी
या मेहँदी हसन की ग़ज़लों
के दर्द को आत्मसात
करते हुए महसूस होती है।
सामने की यह दीवार,
फूलदान के सभी सफ़ेद फूल,
नटराज की मूर्ति
ठहरी हुई है वहीं की वहीं
उस उदास शाम के चलते
कोई भी चीज़
प्रतिध्वनित हो कर
मेरे सामने नहीं आती
चली जाती है सीधी की सीधी एक ही रेखा में
कभी लौट कर न आने के लिए।