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एक ओर माँ लेटी एक ओर बाबू जी / विजय किशोर मानव
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एक ओर मां लेटी एक ओर बाबू जी।
खांस रहे मां से भी ज़ोर-ज़ोर बाबू जी।।
बोए कोई, काटे दूसरा, चरे कोई,
चीख़ा करते बैठे चोर-चोर बाबू जी।
चौतरफ़ा नथे लोग, जुते हुए बैलों-से
देख रहे चाबुक से लैस ढोर बाबू जी।
चूर आईने मिलते सुबह गली में बिखरे
रोज़ फेंकते हैं किरचें बटोर बाबू जी।
मोमबत्तियों जैसे जले-गले रातों में,
बैठे सर पीट रहे देख भोर बाबू जी।
फाड़कर कमीज़ दिया गुल करके बैठ गए
अंधों के हाथों में देख डोर बाबू जी।
आधी चिट्ठी बांची, आंखें पूरी भरीं
डूब गए बेटे में पोर-पोर बाबू जी।