भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक औरत अपने को फिर से सिरज कर / सुमन केशरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक औरत अपने को फिर से सिरज कर
धोती है
अपने मन को
अपने ही लहू से

एक पुरुष डूब जाता है
अपने शर्म के आँसुओं से
कि मैंने अभी कुछ पल पहले
सृष्टि से कहा था
कि रचूँगा तुम्हे मैं

सौंपती हूँ तुम्हें वे तमाम पल
जो कभी मेरे थे ही नहीं
सौंपती हूँ तुम्हें अपने देह की ताप
जो कभी मेरी थी ही नहीं

इस तरह पृथ्वी ने
सूरज को सौंप दी
अपनी सारी ताप
सारा जल
सारी हवा
और
फिर
अपने शून्य के वितान में खो गई...