भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक औरत अपने को फिर से सिरज कर / सुमन केशरी
Kavita Kosh से
एक औरत अपने को फिर से सिरज कर
धोती है
अपने मन को
अपने ही लहू से
एक पुरुष डूब जाता है
अपने शर्म के आँसुओं से
कि मैंने अभी कुछ पल पहले
सृष्टि से कहा था
कि रचूँगा तुम्हे मैं
सौंपती हूँ तुम्हें वे तमाम पल
जो कभी मेरे थे ही नहीं
सौंपती हूँ तुम्हें अपने देह की ताप
जो कभी मेरी थी ही नहीं
इस तरह पृथ्वी ने
सूरज को सौंप दी
अपनी सारी ताप
सारा जल
सारी हवा
और
फिर
अपने शून्य के वितान में खो गई...