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एक और दिन / केशव
Kavita Kosh से
सन्नाटे के तीखे नाखून
गड़ जाते हैं
रोशनी की आँखों में
एक हलकी कराह के साथ
बंद हो जाती हैं
संभावनाओं की खिड़कियाँ
आस्था की टिमटिमाती लौ
दब जाती है रोजमर्रा की
जरूरतों के मलबे तले
एक तँग सुरँग में
किसी ताजे कटे अँग की तरह
छटपटाता है मौसम
वक्त के रेलिंग से कूदकर
आत्महत्या कर लेता है
एक और दिन.