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एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार
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एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा
बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा
हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया
चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की
सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा
सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में
कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया
धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा