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एक कविता--निराला को याद करते हुए/ केदारनाथ सिंह

उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ़ अपना भी घर है

ख़ुश हूँ -- आती है रह-रहकर
जीने की सुगन्ध बह-बहकर

उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा
सोच रहा हूँ रुका -रुका-सा

गोली दंगे न हाथापाई
अपनी है यह अजब लड़ाई

रोज़ उसी दर्ज़ी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक

रोज़ कहीं टाँके पड़ते हैं
रोज़ उधड़ जाती है सीवन

'दुखता रहता है अब जीवन'