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एक कविता / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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एक

पृथ्वी और प्रवीणा हो गयी है मेरुजन नदी के किनारे
विवर्ण प्रासाद अपनी छाया डालता है जल में।
उस प्रसाद में कौन रहते हैं? कोई नहीं-एक सुनहरी आग
पानी की देह पर हिलती-डुलती है किसी मायावी के जादूबल से।

वह आग जलती है।
वह आग जलती जा रही है।
वह आग जलेगी-पर कुछ भी नहीं जलता
उसी निर्मल आग में मेरा हृदय
मृत एक सारस की तरह है।

पृथ्वी का राजहंस नहीं-
निबिड़ नक्षत्र से समागत
संध्या नदी के जल में एक झुंड हंस-और उनमें अकेला
यहाँ कुछ नहीं मिलने पर करुण पंख लिए
वे चले जाते हैं सादा, निःसहाय
एक मूल सारस से वहाँ हुई थी मेरी मुलाकात।

दो

रात के बुलावे पर नदी जितनी दूर चली जाती है-
अपना अभिज्ञान लेकर
मेरी नाव में भी उतनी बाती जलती है,
लगता है यहाँ जनश्रुति का आँवला पा गया हूँ
अपनी हथेली में
सारी किरासन आग बन कर पानी में बहा जाती है आभा
किसी मायावी के जादूबल से।
पृथ्वी के सैनिकगण सो रहे हैं राजा बिम्बिसार के इंगित पर-

बहुत गहरी अपनी भूमिका के बाद
सत्य, सारा समय सोने की वृषभ मूर्ति बना भागता-फिरता है सारे दिन
जैसे हो गया हो पत्थर,
जो युवा सिंहीगर्भ में जन्म पाकर कौटिल्य का संयम पाये
वे सब के सब मर गये।
जैसे सब पर चले गये नींद में जैसे नगर ख़ाली कर
सारी गंदगी बाथरूम में फेंककर,
गम्भीर निसर्ग आभास देकर सुने हुए विस्मृति की
निस्तब्धता तोड़ देता,
अगर एक भी मनुष्य पास होता,
जो शीशे पार का व्यवहार जानता है,
वही द्वीप, पैराफिन-
रेवा मछली तली जाती है तेल में,
सम्राट के सैनिकगण प्यारी और नमकीन चीज़ खायेंगे जग कर, उठकर
संवेदनशील कुटुम्बी जानते हैं-
आदमी अपने बिछौने पर बीच रात मनमौजी खोपड़ी में
कहाँ आघात करेगा किस जगह?
हो सकता है निसर्ग से महारानी आकर कभी बतायें
पानी के भीतर अग्नि का अर्थ।