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एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं / शतदल
Kavita Kosh से
एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा ।
गंध डूबा हुआ एक मीठा सपन
कर गया प्रार्थना के समय आचमन
जब कभी गुनगुनाने लगे बांसवन
और भी बढ़ गया प्यास का आयतन
पीठ पर काँच के घर उठाए हुए
कौन किसके लिए पर्वतों पर चढ़ा ।
जब कभी नाम देना पड़ा प्यास को
मौन ठहरे हुए नील आकाश को
कौन संकेत देता रहा क्या पता
होंठ गाते रहे सिर्फ़ आभास को
मोम के मंच पर अग्नि की भूमिका
एक नाटक यही तो समय ने गढ़ा ।
एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा ।