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एक ख़त / सुरेन्द्र स्निग्ध

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प्यारे दोस्त,
एक ख़त में मैंने तुम्हें लिखा था
इस नई जगह में सब कुछ है
खुला आकाश
तारों भरी रातें
विहँसती चाँदनी
रोज़ खिड़की पर
मनीप्लाण्ट की लताओं के सहारे
चढ़ आता
बच्चा सूरज
मेरी अलसाई देह से लिपटती
भोर की हवा

छत पर दूर-दूर से आए
रंग-बिरंगे नन्हें पँछियों के समूह
उनका कलरव
और बीच में फुदकती
एक टाँग वाली मैना
सब कुछ है यहाँ

मैंने यह नहीं लिखा था दोस्त
यहाँ आने के साथ ही
पड़ गया हूँ गम्भीर रूप से बीमार
पिछले आठ-दस महीने से
लगा हूँ बिछावन से
सोचता रहता हूँ रात-दिन
अपनी बीमारी के बारे में
कट गया हूँ
शहर के साहित्यिक दोस्तों से
रुक-सी गई हैं
तमाम सांस्कृतिक / सांगठनिक गतिविधियाँ
रुक-सा गया हूँ मैं

प्रकृति ने दी है सज़ा
अपने से दूर चले जाने की
जबकि आ गया हूँ मैं
उसके एकदम समीप ।