एक गीत-दुनियाँ के अंत पर / चेस्लाव मिलोश / श्रीविलास सिंह
जिस दिन होगा दुनियाँ का अंत
एक मधुमक्खी लगा रही होगी दूब घास का चक्कर,
एक मछुवारा कर रहा होगा मरम्मत अपने चमकीले जाल की,
खुशी से छलांग लगा रहे होंगे समुद्र में जल-जीव,
गौरैयों के बच्चे खेल रहे होंगे वर्षा की रिमझिम फुहारों में,
और होगी स्वर्णिम चमक सांप की त्वचा में, जैसे उसे होना चाहिए सदा ही।
जिस दिन होगा दुनियाँ का अंत
छतरी लिए औरतें गुज़र रहीं होंगी खेतों के बीच से,
एक पियक्कड़ गिरा होगा लॉन के किनारे अर्द्धनिद्रित,
गली में आवाज़ लगा रहे होंगे सब्जी बेचने वाले
और एक पीले पाल वाली नाव आती जा रही होगी टापू के और पास,
हवा में गूंज रहा होगा वायलिन का संगीत
जो ले के जाएगा तारों भरी रात में।
उन्हें होगी निराशा जिन्होंने की थी अपेक्षा आंधी और तड़ितपात की
और उन्हें भी, जिन्हें अपेक्षा थी अपशकुनों की और फ़रिश्तों के शंखनाद की,
उन्हें नहीं होगा विश्वास कि यह सब घटित हो रहा अभी ही,
जब तक कि चमक रहे होंगे सूरज चाँद आसमान में
जब तक मंडराते होंगे भँवरे गुलाबों पर
जब तक जन्म ले रहे होंगे गुलाबी रंगत वाले बच्चे
किसी को नहीं होगा विश्वास कि यह घटित हो रहा अभी ही।
केवल एक सफ़ेद बालों वाला वृद्ध, जिसे होना चाहिए ईश्वर का दूत
किंतु जो नहीं है, क्योंकि वह है बहुत व्यस्त
अपने टमाटरों की बेल को सहारा देता, दुहराता बार-बार
नहीं होगा अन्य कोई दूसरा अंत दुनियाँ का
नहीं होगा अन्य कोई दूसरा अंत दुनियाँ का।