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एक घूँट बनकर अमृत की चली जगत की प्यास बुझाने / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
एक घूँट बनकर अमृत की चली जगत की प्यास बुझाने।
प्यास भरी कितनी जीवन में इसे भला कोई क्या जाने॥
एक कसक कितनी ही आँखों से आँसू बरसा जाती है
मुस्कानों में पीर छिपी है कितनी यह कोई क्या जाने॥
यह अक्षुब्ध सिंधु नित अपना क्षोभ प्रगट करता ज्वारों में
नदियों ने निज सार लुटाया है कितना कोई क्या जाने॥
कुछ बूंदें बादल को देकर सागर ने तो महिमा पाली
प्यास बुझा कर जगती की पर कौन मिटा कोई क्या जाने॥
आशाओं के सम्बल लेकर धड़कन थी नित कदम बढ़ाती
गया श्वांस क्यों लौट न पाया इसे भला कोई क्या जाने॥