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एक ज़न-ए-ख़ाना-ब-दोश / फ़हमीदा रियाज़
Kavita Kosh से
तुम ने देखी है कभी एक ज़न-ए-ख़ाना-ब-दोश
जिस के ख़ेमे से परे रात की तारीकी में
गुरसना भेड़िए ग़ुर्राते हैं
दूर से आती है जब उस की लहू की ख़ुश्बू
सनसनाती हैं दरिन्दों की हँसी
और दाँतों में कसक होती है
कि करें उस का बदन सद-पारा
अपने ख़ेमे में सिमट कर औरत
रात आँखों में बिता देती है
कभी करती है अलाव रौशन
भेड़िए दूर भगाने के लिए
कभी करती है ख़याल
तेज़ नुकीला जो औज़ार कहीं मिल जाए
तो बना ले हथियार
उस के ख़ेमे में भला क्या होगा
टूटे फूटे हुए बर्तन दो-चार
दिल के बहलाने को शायद ये ख़याल आते हैं
उस को मालूम है शायद न सहर हो पाए
सोते बच्चों पे जमाए नज़रें
कान आहट पे धरे बैठी है
हाँ, ध्यान उस का जो बँट जाए कभी
गुनगुनाती है कोई बिसरा गीत
किसी बनजारे का