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एक जुग ब'अद शब-ए-ग़म की सहर देखी है / गोपालदास "नीरज"


एक जुग ब'अद शब-ए-ग़म की सहर देखी है
देखने की न थी उम्मीद मगर देखी है

जिस में मज़हब के हर इक रोग का लिक्खा है इलाज
वो किताब हम ने किसी रिंद के घर देखी है

ख़ुद-कुशी करती है आपस की सियासत कैसे
हम ने ये फ़िल्म नई ख़ूब इधर देखी है

दोस्तो नाव को अब ख़ूब सँभाले रखिए
हम ने नज़दीक ही इक ख़ास भँवर देखी है

उस को क्या ख़ाक शराबों में मज़ा आएगा
जिस ने इक बार भी वो शोख़ नज़र देखी है