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एक जोगी आ गया मन के नगर में / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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एक जोगी आ गया मन के नगर में
जल उठे अगणित दिये सूनी डगर में।
मन प्रकाशित तन सुवासित हो गया है,
हर कदम है साथ जीवन के सफ़र में।

झूमकर गाने लगी चारों दिशाएं,
बह रही उन्मुक्त सी चंचल हवाएं,
प्रेम जब अधिपति बना सारे जगत का,
छा गईं आकाश पर काली घटाएं,
इक नदी मिलने चली सागर से विह्वल,
ले तराने प्रीति के हर इक लहर में।

एक जोगी आ गया मन के नगर में
जल उठे अगनित दिये सूनी डगर में।

मिल गया आकाश मन की चेतना को,
मिल गया आधार उर की वेदना को,
सर्जना होने लगी नव सृष्टि की तब
लक्षणा ने छू लिया जब व्यंजना को,
प्राण का संचार है आभास उसका,
है वही सामर्थ्य जीवन के समर में।

एक जोगी आ गया मन के नगर में
जल उठे अगनित दिये सूनी डगर में।

सांझ में है रंग भरता वो चितेरा,
है उसी के दम से ये सुंदर सवेरा,
मेरा तन मन हो गया उसमें समाहित
और उसका हो गया मुझमें बसेरा,
साथ चलता है वही हर इक घड़ी में,
वो है दिन में रात में आठो पहर में।

एक जोगी आ गया मन के नगर में,
जल उठे अगनित दिये सूनी डगर में।