एक झुर्री चन्द सफ़ेद बाल और आइसोटोप-5 / तुषार धवल
साबुन से जुड़े ये रंग गाढ़े नहीं होते
बह जाते हैं
पिछली आग की सिर्फ राख़ बाकी है
जो बदनुमा था मुँहलगा था मिटा दिया गया
अब उसे इतिहास का सुनहरा काल कहते हैं कि उसी से वर्तमान सुन्दर लगता है
कुछ बुलबुलों की तलाश है
जो छाप छोड़ सकें
नहीं मिलते
घुल जाते हैं इन साबुनी रंगों में
ख़ुशनसीब हैं देह बदल लेते हैं
इन्हें चालीस की वंचना नहीं मिलती
इन्हें अहं अपना नहीं गढ़ना होता
इन्हें नहीं जीतना होता है ख़ुद को तमाम पराजयों के बाद भी
ये बलिष्ठ भुजाओं पर तावीज़ बने रहते हैं ... साबुन से जुड़े ये रंग.
ढूँढ़ता हूँ एक शब्द
बुलबुले से इस जीवन में जो अपनी छाप छोड़ सके
नहीं मिलता वह शब्द
“हलो ! जी जी ! आशीर्वाद है. धन्यवाद. प्रणाम !”
फोन फेसबुक झूठे हैं
झूठी हैं औपचारिकताएँ
और ये शब्द भी झूठे हैं
जो गढ़ दिए गए हैं किसी के भी इस्तेमाल के लिए कि जैसे बन्दूक बम बारूद या साबुन
और तभी मैं कैनवास के शून्य में शब्द खोजता हूँ जो नहीं मिलता
शब्द
जिसका पास-वर्ड सीधा आत्मा में दर्ज़ हो
नहीं मिलते हैं शब्द नहीं मिलती है वजह होने की और ना ही कविता की
एक गाँव जो टूटा हुआ है बिखरा मेरे हर गाँव-सा
जिसके बाहर लिखा है
क्षय के संकेत
वहाँ ईश्वर धर्म दर्शन जगत कब से पसोपेश में खड़े हैं
कि ठीक वहीं से विघटन शुरू होता है देह ढलान को पैरों की अँगुलियों से रोकती है कि जैसे अड़ता है धर्म जैसे अड़ता है तुम्हारा ईश्वर जैसे अड़ती है कट्टरता
विघटन सिर्फ़ पश्चिम में ही नहीं होता
सूरज के साथ हर जगह है
बाड़ से छूटे मवेशियों की खुरों में होता है उन्माद
दक्षिण !
तुम्हारा पश्चिम तुम्हारे ही खुरों में है
तुम कितने गाँधी मारोगे ?
तुम असम्भव मिथ्या के चालीस पर खड़े हो उस प्रवेश द्वार में घुसने से डरते हुए
एक परिपक्व जीवन के युवा काल की चरम बिन्दु पर
अमरता के खूँटे तुमने भी गाड़ दिए हैं
और अमरता भी वहीं है तुम्हारे बगल में तुम्हारी ही तरह
चालीस के प्रवेश द्वार से कुछ क़दम पहले जिसके आगे लिखा है “क्षय के संकेत”