भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक टुकड़ा ज़िंदगी / प्रीति 'अज्ञात'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक टुकड़ा ज़िंदगी
अपनों से ही
होती रही भ्रमित
खोती रही
जीवन के मायने
बदलते चले गये
श्वासों के अर्थ
ग़लत हुआ हर गणित
शब्दों के पीछे छुपा मर्म
कोसता रहा अपने होने को
कौन पढ़ पाया
अहसासों और हृदय के
उस एकाकी कोने को?

सबने चुन लीं
अपने-अपने हिस्से
की खुशियाँ
मुट्ठी भर मुस्कानें
समेटीं दोनों हाथों से
भरी रिक्तता स्वयं की
संवार ली अपनी दुनिया
दर्द, आँसू सर झुकाए
अब भी तिरस्कृत
शून्य के चारों तरफ
निराश, हताश भटकते

बंज़र ज़मीन पर
चीत्कारें भरता मन
सुन रहा अट्टहास
बदली हुई दृष्टियों का
भिक्षुक बना प्रेम
स्मृतियाँ बनीं सौत
एक टुकड़ा ज़िंदगी
पल-पल बरसती मौत