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एक दिन बुझाइल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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एक दिन बुझाइल,
जे होखे रलऽ से हो गइल
जात्रा हमार शेष हो गइल
अंतिम पड़ाव आ गइल।
बुझाइल कि अब आगे राह नइखे,
अब आगे बढ़ल बेकार बा,
राह खर्च भी खतम बा।
बुझाइल कि अब थाकल जीवन का
आराम करे के अवसर आगइल।
फाटल-पुरन चिथड़न मेभें
जीर्ण-शीर्ण जीवन लेले
भला आगे जाएब भी कइसे?
बाकिर आज फेनू बुझाइल
कि नवीनता के कवनो सीमा नइखे
तहरा लीला के कवनो अंत नइखे।
हमरा गीत के स्वर अब पुरान पड़ गइल
तब हृदय से नया गीत के सोता फूट पड़ल
जब पुरान राह शेष भइल
तब नवीन राह लउके लागल।