एक दिन में नहीं बन जाती कोई अमर कृति / महेश चंद्र पुनेठा
कोई दिलकश नग़मा जिसे सुनते हुए तुम
खो जाते हो किसी अनंत में
बजने लगती है सिंफनी-सी कहीं भीतर
उड़ने-से लगते हो दूर गगन में
बिन पंखों के भी
ख़ुशबू फैल जाती है चारों ओर
रात की रानी-सी
सुनाई देने लगती है --
नदी की कल-कल, छल-छल
और हवा की सन-सन
बिना नदी
बिना हवा के भी
उतरने लगते हैं दृश्य-दर-दृश्य
देखे-अनदेखे ।
फूटे नहीं होंगे इसके बोल
किसी एक पल में
डूबा होगा कोई कवि अतल गहराइयों में
मन की
चासनी में भीगे होंगे ये भाव
विवेक के झाजन में छनकर
निकले होंगे बाहर
बेचैन रहा होगा कवि कई-कई दिनों तक
मथता रहा होगा दिल की मथनी में
मस्तिष्क की फिरकी से
तब जाकर पाए होंगे सटीक शब्द
उलटता-सुलटता रहा होगा वाक्यों को
पाने को एक सटीक लय
तब भी रह गया होगा कुछ अनकहा
संगीतबद्ध करने को इसे
उतरा होगा एक संगीतकार
धुनों के सागर में
एक धुन की तलाश में
लहरों की तरह आती-जाती रही होंगी
अनेकानेक धुनें
कुछ जानी कुछ अनजानी
तब मिली होगी एक धुन हृदय-स्पर्शी
स्वर देने को फिर
उलझा होगा एक गायक
स्वरों के तानों-बानों के बीच
सिरा हाथ लगा होगा जब एक सही स्वर का
किया होगा रियाज दिन-रात
कितने सुरों के उतार-चढ़ाव के बाद
पाया होगा अपना एक सुर
साथ रहा होगा बहुत सारे वाद्य-वादकों का
जिन्हें जानते भी नहीं हम
और तब बना होगा एक दिलकश नग़मा ।