एक नज़्म अपनी हमनफ़स के नाम! / धीरज आमेटा ‘धीर’
मिरी जाँ तेरी आँख खुलने से पहले
चला हूँ मैं ये रात ढलने से पहले!
मैं पत्तों से थोड़ी-सी शबनम उठा लूँ,
मैं सूरज की पहली किरण को चुरा लूँ
किसी फूल की खिल-खिलाती हँसी को,
किसी खेत की लहलहाती छवी को!
चहकते हुए पंछियों की सदाएँ,
ठुमकती हुई हिरणियों की अदाएँ!
भरी दो-पहर में इक अँबिया की छाया,
महकती हवा और नदिया की धारा!
जो हो जाये फिर शाम को लाल अम्बर
मैं थोड़ा-सा सिन्दूर उस का चुरा कर!
ज़रा अपनी आँखों की डिबिया में भर लूँ,
मैं पलकों के पीछे इन्हें क़ैद कर लूँ!
इसी आशियाने में चन्दा निकलते,
मैं आ जाउँगा लौट कर शाम ढलते!
तेरे ख़्वाब का शहर इनसे सजा के,
तेरी रात के घर की रंगत बढ़ा के!
तेरे चेहरे को रात भर मैं तकूँगा
तेरी नींद की पासबानी करूँगा
यही सोच कर आज घर से चला हूँ,
मेरी जाँ तेरी आँख खुलने से पहले!
चला हूँ मैं ये रात ढलने से पहले!