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एक न्यूक्लेयर नज़्म / रियाज़ लतीफ़
Kavita Kosh से
जहाँ को फिर बताएँगे
समुंदर भाप बन कर किस तरह उड़ते हैं आँखों से
बदन शक़ होते होते किस तरह पाताल बनते हैं
नफ़स के शहर कैसे रेज़ा रेज़ा ख़ाक होते हैं
मसामों से उबल कर आसमाँ कैसे सुलगते हैं
अदम मशरूम बन कर कैसे ख़लियों से उभरता है
कि उखड़ी इर्तिक़ा की बूँद में सरशार ये पुतले
हमारे दो जहानों का मुकद्दर सोचने वाले
इन्हीं बौनों की ख़ातिर लाए हैं अब हम सुकूत अपना
कि हम ख़ामोश बैठे हैं
कि लर्ज़ां इर्तिंक़ा के रूख़ पे पर्दा डालते हैं हम
कि अब भी रूह से हीर ओ शीमा खँगालते हैं हम