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एक पल की क़लील मुद्दत में ज़िन्दगी भर के राज़ डूब गए / अंबर खरबंदा

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एक पल की क़लील मुद्दत में ज़िन्दगी भर के राज़ डूब गए
वक़्त के बे-करां समंदर में कैसे-कैसे जहाज़ डूब गए

जिस्म के मौसिमों का क्या कहना, आती-जाती रुतों की बात ही क्या
आशिक़ों में भी वो तड़प न रही, नाज़नीनों के नाज़ डूब गए

काविशें भी तो कम न थीं अपनी, अज़्म भी क्या बुलन्द था लेकिन
वक़्त के आगे ज़िन्दगानी के सब नशेबो-फ़राज़ डूब गए

ज़िन्दगानी के बहते दरिया में सख़्त हालात के भँवर उट्ठे
मैंने नग़्मे तो कुछ बचा ही लिए हाँ मगर सारे साज़ डूब गए

जाने कितने ही देखने निकले जामो-मीना की क्या है गहराई
कुछ तो डूबे ‘फ़िराक़’ ‘शाद’ ‘जिगर’ कुछ ‘शकील’-ओ-‘मजाज़’ डूब गए

ये भी लिक्खा हुआ था क़िस्मत में या फ़क़त इत्तेफ़ाक़ था ‘अंबर’
सारे बन्दे तो पार जा उतरे सिर्फ़ बन्दानवाज़ डूब गए