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एक पल के लिये मन द्रवित तो हुआ / चिराग़ जैन

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सच के साँचे हमें क्यों जटिल से लगे
उम्र को झूठ में ढाल कर चल दिये
सादगी की सुहानी डगर छोड़ कर
ज़िंदगानी फटेहाल कर चल दिये
जिस रवैये से हम ख़ौफ़ खाते रहे
क्यों उसी के लिये हम पुरस्कृत हुए
ज़िंदगी पर चढ़े पाप के आवरण
पाठ बचपन के सारे तिरस्कृत हुए
प्रश्न तो आत्मा ने उठाए मगर
हम उन्हें बिन सुने टाल कर चल दिये
हर घड़ी भावनाएँ खरोंची गईं
हर क़दम दंभ की जीत होती रही
राजसी स्वप्न नयनों पे छाए रहे
सत्व की रौशनी मौन सोती रही
लोभ की राह पर कोई रोता मिला
हम उसे और बदहाल कर चल दिये
घर से ख़ुशियाँ कमाने चले थे मगर
घर की ख़ुशियाँ लुटाते रहे उम्र भर
कौन जाने कि किस चैन के वास्ते
चैन अपना गँवाते रहे उम्र भर
उम्र भर आँकड़े ही जुटाते रहे
और हम ख़ुद को कंगाल कर चल दिये
भागते -दौड़ते रास्तों पर अगर
कोई लाचार तनहा तड़पता मिला
पूस की रात में कोई बेघर दिखा
जेठ की प्यास में कोई मरता मिला
एक पल के लिये मन द्रवित तो हुआ
भावना पर क़फ़न डाल कर चल दिया।