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एक पांत में चलती चींटी / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
नन्ही-नन्ही, काली-काली
एक पांत में चलती चींटी
अपनी धुन की पक्की होती,
समय नहीं वह पल भर खोती,
बड़ी लगन से मजदूरों-सा
कण-कण चुनकर घर तक ढोती,
सरदी, गरमी, वर्षा सब में
सबके घर में पलटी चींटी।
कीमत उसे ज्ञात पल की
इज्जत करती अपने दल की,
जीवन के हर पथ पर रुक कर
चींटी सदा सोचती कल की,
किसी मुसीबत के आने से
पहले सदा सँभलती चींटी।
रुकना उसे न तनिक सुहाता,
झगड़ा-झंझट उसे न भाता,
पूछा करती कुशल सभी का
सबसे रखती स्नेहिल नाता,
श्रम के पथ में दीपक बनकर
जीवन भर है जलती चींटी।