एक पागल का प्रलाप / फ़रीद खान
कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है ।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है ।
कट्टर और निरंकुश होता है ।
वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है ।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है ।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है । उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है ।
जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए ।
इतना तो अपना हक़ बनता है ।
जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते ।
पागल को सभी ढेला मारते हैं ।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?
वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?