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एक पीढ़ी घने पत्तों की / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
फूल बनकर
उग रहे हैं फिर जले जंगल
रात भर दहके
धुआँ होते रहे बूढ़े तने
दिन चिटखकर ढह गये
पगडंडियों के सामने
चीड़वन की
राख में फिर पल रही कोंपल
एक पीढ़ी घने पत्तों की
सुलग कर रह गयी
मेंह लौटे
वह व्यथा
जलधार बनकर बह गयी
रास्ते से
उठ रहीं फिर खुशबुएँ पागल
घास के तिनके
हवाओं को पकड़ने फिर लगे
टहनियों पर
झील के
चुपचाप सपने फिर जगे
ठूँठ को
फिर नये पत्तों के मिले आँचल