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एक प्रमाणिक कवि / उदयभानु हंस

Kavita Kosh से
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मेरी दृष्टि में भाव, भाषा, छन्द और अभिव्यक्ति में निपुण रचनाकार ही ‘प्रमाणिक कवि’ होता है। महावीर ‘मधुप’ इसी श्रेणी में आते हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में द्विवेदी युगकालीन हरियाणा की चार विभूतियों का उल्लेख किया है- सर्वश्री बालमुकुन्द गुप्त (रेवाड़ी), पंड़ित माधवप्रसाद मिश्र (भिवानी), विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ (अम्बाला) और तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’ (भिवानी)। मिश्र जी का जन्म भिवानी के कूंगड़ गाँव में और दिनेश जी का जनम कैरू गाँव में हुआ। हरियाणा प्रदेश के एकमात्र महाकवि (पुरूषोत्तम महाकाव्य के रचनाकार) का पूरा साहित्य उपलब्ध न हो पाने के कारण वे शोधकर्ताओं व आलोचकों की दृष्टि से अभी तक उपेक्षित रहे। खेद है, इसी प्रकार महावीर प्रसाद ‘मधुप’ जैसे एक सक्षम छन्दोबद्ध रचनाकार, एकमूक साधक होने के कारण केवल क्षेत्रीय कवि के रूप में सीमित रह गए। राज्य स्तर पर उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ। मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि भिवानी के ही देश-विदेश में मंच पर धाक जमाने वाले एक ओजस्वी कवि प्रिय राजेश चेतन और मधुप जी के परिवार ने मिलकर इस कमी को पूरा करने का संकल्प लिया है। अस्तु!

मधुप जी से 1960 के दशक से ही मेरा निकट संपर्क रहा है। मेरे प्रति उनका स्नेह, सद्भाव और सम्मान अविस्मरणीय है। मधुप जी का नवीनतम काव्य-संग्रह ‘माटी अपने देश की’ उनकी कवीत्व शक्ति का मुखर प्रमाण है। उनके शीर्षक गीत से लेकर श्री रामगीत तक उनके गीत ओर कविताएँ बहुत लम्बी हैं, जो मुझ पुराने युग की याद दिलाती हैं; जब इसी तरह का चलन था। आजकल तो नवगीत हों या सामान्य गीत, 12 से 30 पंक्तियों के लिखे जाते हैं। विविध एवं निर्दाेष छन्दों के रचनाकार मधुप जी ने प्रस्तुत काव्य-संग्रह में गीत, कविता, दोहा, कवित्त और छप्पय जैसे पुराने छन्दों को भी अपनाया है। उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर देशभक्ति, राष्ट्र तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ वर्तमान भारत की कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को प्रतिध्वनित करता है, जैसे - दहेज प्रथा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, आर्थिक विषमता और कश्मीर आदि।

विस्तार में न जाकर मैं मधुप जी की कुछ उल्लेखनीय रचनाओं के अंश बानगी के रूप में प्रस्तुत करता हँू-

तिलक लगाकर पावन कर लो भाल को

माटी मेरे देश की सिन्दूर है।

इस माटी का कण-कण कोहेनूर है।


संकट में है देश, घिरी फिर सिर पर घटा अँधेरी है।

सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

आज़ादी का सूरज निकला, फिर भी है अंधियारा क्यों?

सत्य-अहिंसा की धरती पर शोणित की है धारा क्यों?

घिरा हुआ पतझर से सारा अपना ये उपवन है क्यों?

राष्ट्रपिता के आदर्शों का होता आज हनन है क्यों?


लगती रोज़ नुमाइश बेटों की खुल कर लगती बोली,

लूट मचाती घूम रही पापी बटमारों की टोली,

कब उनसे आँसू के अंतर्मन में झाँका जाता है,

मूल्य वधू का केवल कुछ सिक्कों से आँका जाता है,

कब किसकी दयनीय दशा पर पाते हैं पाषाण पिघल।

इस देहज के दानव ने सारे समाज को दिया कुचल।।


हिन्दी एक ऐसा दिव्य कोष है धरातल पे,

राशि है अनन्त रतनों की जिसमें भरी।।

बेटी देववाणी की, लपेटी मधु में है गई,

विश्व में करेगा कौन हिंदी की बराबरी।।


रीति-कालीन छन्द में शृंगार रस का एक उदाहरण देखिए-


अलकावलि मंजु सुगंध सनी, बनी नागिन-सी लहराती रही,

अरविन्द से आनन पे मधुपावलि मुग्ध हुई मँडराती रही,

अति रूपवती रति-सी रमणी नित मान भरी इठलाती रही।

संक्षेप में वस्तु और शिल्प, दोनों दृष्टियों से मधुप जी की आलंकारितक भाषा में ये छन्दोबद्ध रचनाएँ तथाकथित मुक्तछन्द (वास्तव में छन्दमुक्त) के नीरस गद्य की मरूस्थली में सावन की शीलत फुहार-सी लगती हैं। इस काव्य-संकलन में ‘क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो!’; ‘माँ’; ‘महर्षि दयानन्द’; ‘सेतु-बन्ध’; ‘ पार्थ-परीक्षा’ ओर ‘रहस्य’ जैसी कुछ गीत-कविताएँ भी पठनीय हैं, जिनके उदाहरण विस्तार भय के कारण संभव नहीं।


मंगल कामनाओं के साथ...

-उदयभानु हंस