एक बात नहि विसरक चाही / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
एक बात नहि बिसरक चाही
हमहूँ अंग समाजक छी,
किछु नहि छी, तैयो सभ किछु छी
ई जुनि बुझो अकाजक छी।
कोनो अकाजक वस्तुक रचना
करिते छथि भगवाने ने,
नहि बुझने कहि दियै’ अकाजक
एहन कथनकेर माने ने।
विश्वक ई वैचित्र्य, विचारक
वैविध्योक ठेकाने ने,
अहंभाव तजि अनकर कथनी-
केँ करइत छी काने ने।
प्याज थिकहुँ तँ रहू, बुझी जुनि
हम तै पेनी प्याजक छी।
थिकहुँ गृहस्थ करै’ छी खेती
अपन पसेना बोरै’ छी,
रौद प्रचण्ड, प्रबल झझाकेँ
देह लगा झिकझोरै छी।
राति-राति भरि जागि बाघ-वन
उपजल अन्न अगोरै’ छी
सीस-सीस संचित करबा लय
समचा सकल सङौरे’ छी।
थीक समाज जहाजे, तँ हम
पंखी ओहि जहाजक छी।
थिकहुँ श्रमिक, धरतीक गर्भसँ
ठोस, तरल सभ कोड़ै’ छी,
चमक-दमक अछि जाहि महलमे
तकर पजेबा जोड़ै’ छी।
चढ़ि पहाड़हुक छाती पर हम
तकरो आँत ममोड़ै’ छी,
परती भेल एहि धरतीकेँ
लय कोदारि हम तोड़ै’ छी।
सेवे टाकेँ धर्म बुझै’ छी
सेवक गरीब-नेबाजक छी।
थिकहुँ प्रशासक, राज काजकेर
करइत छी यदि संचालन,
अछि उत्तरदायित्व भंग हो
नहि समाजमे अनुशासन।
थीक प्रशासन यन्त्र, तकर हम
छी आवश्यक पुर्जा सन,
अछि हमरो कर्त्तव्य करी सभ
विधिएँ नियमक परिपालन।
आन-आन थिक आन अंग
आ मेरु-दण्ड हम राजक छी।
व्यापारी छी, राष्ट्रोद्योगक
भार माथपर गछने छी,
अनुखन अर्थक चिन्तनमे हम
बुद्धि-समुद्र उपछने छी।
अवसर पर गबदी लघने
कतबहिमे कछनी कछने छी
अनकर बात कहू की, अपने
अपन कोंढ़ धरि चँछने छी।
तदपि देश पछुआयल हो, नहि
भागी तखन स्वराजक छी।
छात्र थिकहुँ, अपना चरित्र-
निर्माणेमे लागक चाही,
प्रहरी छी, राष्ट्रक रक्षामे
राति-दिवस जागक चाही
सैनिक छी, नहि समरभूमिसँ
पीठ देखा भागक चाही,
नेता छी तँ सभसँ पहिने
स्वार्थभाव त्यागक चाही।
संयोजक बनि रहू, भ्रमहुँ नहि
सोचू देश विभाजक छी।