एक बेचैन घड़ी में / मिक्लोश रादनोती / विनोद दास
मैं रहता था ऊपर वायुमण्डल में
हवा में जहाँ सूरज था
हंगरी ! तुमने अपने दिल टूटे बेटों को
घाटियों में किस तरह क़ैद कर रखा है
तुम मुझे परछाइयाँ पहनाते हो और शाम के नज़ारे में
सूर्यास्त की गर्मी से मुझे कोई आराम नहीं मिलता
मेरे ऊपर चट्टानें हैं और सुदूर है सफ़ेद आकाश
मैं ख़ामोश पत्थरों के बीच गहराइयों में रहता हूँ
हो सकता है कि मैं भी ख़ामोश हो जाऊँ
आज मै कविता क्यों लिखता हूँ
बताओ ! क्या यह मौत है
यह सवाल कौन पूछता है
कौन पूछता है ज़िन्दगी के बारे में
और इस कविता के बारे में — जो महज़ टूटी लड़ियाँ हैं
जानता हूँ कि वहाँ एक भी चीख़ नहीं होगी
कि वे तुम्हें नहीं दफ़नाएँगे
कि घाटी तुम्हें पनाह नहीं देगी
हवा तुम्हें बिखेर देगी
फिर कुछ देर बाद पत्थर से आवाज़ गूँजेगी
जो कुछ मैं कहूँगा
जवान लड़के-लड़कियाँ
बड़े होने पर
जिसे समझेंगें
विनोद दास द्वारा अँग्रेज़ी से अनूदित